Thursday, May 27, 2010
केदारनाथ सिंह की तीन कविताएँ
|| आवाज़ ||
चुप रहने से कोई फायदा नहीं
मैंने दोस्तों से कहा
और दौड़ा खेतों की ओर
कि शब्द कहीं पक न गए हों
यह दोपहर का समय था
और शब्द पौधों की जड़ों में सो रहे थे
खुशबू यहीं से आ रही थी - मैंने कहा
यहीं - यहीं - शब्द यहीं हो सकता है - जड़ों में
पकते हुए दानों के भीतर
शब्द के होने की पूरी सम्भावना थी
मुझे लगा मुझे एक दाने के अन्दर घुस जाना चाहिए
पिसने से पहले मुझे पहुँच जाना चाहिए
आटे के शुरू में
चक्की की आवाज़ के पत्थर के नीचे
- मुझे होना चाहिए इस समय
जहाँ से गाने की आवाज़ आ रही थी
यह माँ की आवाज़ है - मैंने खुद से कहा
चक्की के अन्दर माँ थी
पत्थरों की रगड़ और आटे की गंध से
धीरे-धीरे छन रही थी माँ की आवाज़
फिर मैं सो गया
कब और कहाँ मुझे याद नहीं
सिर्फ़ चक्की चलती रही
और माँ की आवाज़ आती रही
रात भर |
|| दीवार ||
मुझे नहीं लगता मैं उसे देख रहा हूँ
मुझे हमेशा यही लगता है मैं उसे खा रहा हूँ
सिर्फ़ उसके स्वाद के बारे में
कुछ नहीं कहा जा सकता
एक पूरी उम्र
उसकी नीली गरमाई में काट देने के बाद
मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ
कि लोहा नहीं
सिर्फ़ आदमी का सर उसे तोड़ सकता है |
|| मुक्ति ||
मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूँ
मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़'
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ 'पानी'
'आदमी' 'आदमी' मैं लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ |
[ कविताओं के साथ दिए गए चित्र समकालीन भारतीय कला में एक खास पहचान रखने वाले वरिष्ठ चित्रकार जोगेन चौधरी की पेंटिंग्स के हैं | ]
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Friday, May 21, 2010
इतालवी कवि जिसेप्पे उंगारेत्ती की कविताएँ
|| गलीचा ||
फैलता बढ़ता है हर रंग
पहुँचने को दूसरे रंगों तक
और भी अकेला होने को
अगर देखो तो
|| भाइयो ||
भाइयो किस सैन्य दल के
हो तुम ?
रात में काँपता है
शब्द
एक पत्ती फूटती है
तबाह हवा में
बेमन युद्ध आदमी का
आमने सामने
अपनी ही निर्बलता के
भाइयो !
मैं जीवित हूँ
मों साँ मिशेल के इस
पत्थर की तरह
इतना ही ठंडा
इतना ही कठोर
इतना ही सूखा
इतना ही जिद्दी
इतना ही संवेगरहित
इस पत्थर की तरह
ही अनदेखा है
मेरा रोना
जी कर हम
छूट देते हैं
मृत्यु को
|| साफ आकाश ||
इतनी धुंध के बाद
एक एक कर
दिखते हैं तारे
मैं लेता हूँ इस ठंडी हवा
में साँस जिस में रंग
है आकाश का
मैं जानता हूँ मैं हूँ
एक गुजरता हुआ बिंब
एक अमर घेरे के बीच
देखा गया
|| सुख ||
रोशनी और रोशनी और रोशनी
के बुखार में
तपता हूँ
स्वागत करता हूँ
इस दिन का
मधुर होते फल की
तरह
आज रात
मरुथल में खो जाती
चीख़ सा
होगा पछतावा
|| रात ||
इस अँधेरे में
ठंडे हाथों से
अनुभव करता हूँ
अपना चेहरा
देखता हूँ
अपने को तैरता
अनंत विस्तार में !
|| और मत रोओ ||
बंद करो मृतकों को मारना
अगर तुम चाहते हो सुनना
अब भी उन्हें
चाहते हो अगर नष्ट
नहीं हो जाना,
रोओ मत, और मत रोओ !
उन की फुसफुसाहट है अबूझ
घास के उगने जैसा ही है बस
उनका शोर
जहाँ से गुजरता नहीं है कोई सुखी !
|| स्मृति मोह ||
जब रात लगभग खत्म हो जाती है
बसंत शुरू होने से कुछ पहले
और लोग
गुजरते हैं कभी कभी सड़कों से
रोने का एक घना रंग
छा जाता है पेरिस के ऊपर
पुल के एक कोने में
एक दुबली लड़की के
गहरे मौन का अनुभव
करता हूँ मैं
हम दोनों के दुखों की
धमनियाँ एक हो जाती हैं
बहाकर ले जाये जाते हैं हम कहीं
और रहते हैं वहीं
[ जिसेप्पे उंगारेत्ती (8 फरवरी 1988 - 2 जून 1970) इतालवी के एक प्रमुख आधुनिक कवि के रूप में जाने जाते हैं | वह एक पत्रकार, निबंधकार और समीक्षक भी थे | मिस्र में जन्मे जिसेप्पे उंगारेत्ती कुछ समय पेरिस में भी रहे और फिर इटली पहुँचे | प्रथम विश्व युद्ध में वह इतालवी सेना में भरती हुए थे | 1916 में प्रकाशित हुए अपने पहले संग्रह की कविताएँ उन्होंने युद्ध के बीच खंदकों में लिखी थीं - सीधी, आकार में छोटी, भाषा को एक 'जादुई' स्पर्श देती हुई | बाद में उनकी कविताओं का यही रूप और गहराया तथा यही रूप उनकी कविताओं की पहचान बना | यहाँ प्रकाशित कविताओं का अनुवाद प्रयाग शुक्ल ने अंग्रेजी से किया है | इतालवी से अंग्रेजी में अनुवाद का काम पैट्रिक क्रीध ने किया था | कविताओं के साथ दिए गए चित्र इतालवी चित्रकार मोरांदी (1890 - 1964) की पेंटिंग्स के हैं | ]
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Saturday, May 15, 2010
रफ़ीक़ ख़ान का समय-बोध
|| खोज ||
एक सपना जो धूल में
लोट रहा है
एक चाहत जो पेड़ से
टूटकर गिरती हुई
पत्ती की तरह थरथराती रही है |
एक सधी हुई आवाज़
जो चीख़ बनकर बिखर चुकी है
एक सोच
लकड़ी के चाकू में तब्दील हो चुकी है
किताबों की आग थककर
राख हो चुकी है
उन चीज़ों का भारी टोटा है
जिनसे गढ़े जाते हैं, अच्छे लोग |
तरह-तरह की आवाज़ें हैं
कभी समाप्त न होने वाले
इस मेले में
रंग-बिरंगी रोशनियों में
गुम होते लोग
अपने आपको ढूंढ रहे हैं |
मुझे नहीं मालूम
मैं कहाँ गुम हूँ
बाजार की भीड़ में,
मेरी आवाज़ गुम है
हिंसक शोर में,
मैं पूछता हूँ सबसे अपना पाता
क्या मुझे आपने
कहीं देखा है ?
|| चेतावनी ||
हम भागती हुई
भीड़ के पैरों की सुविधा हैं,
कुचले जाने को अभिशप्त
हमारा कोई आकाश नहीं है |
सिर्फ़ कविता में है
झिलमिल चाँदनी
और ठंडा गोल चाँद |
हम असंभव सी इस दुनिया में
संभव कैसे करते हैं, जीना
कोई कुछ नहीं जानता |
इस अंतहीन नाटक में
कोई दृश्य नहीं है हमारा
और नेपथ्य में भी नहीं हैं हम |
हम पत्थर की ठोकरों में
काँच की तरह हैं
हर रास्ता बंद है
हमारे लिए
इस चेतावनी के साथ
सावधान ! आगे खतरा है |
|| समय बोध ||
यह अतिरिक्त सावधानी का
समय है
सावधान रहो
कि ख़तरा आ रहा है
या कि आ भी चुका है |
यह डरने का समय है
डरो कि हो सकता है
तुम्हारे साथ कुछ भी
यह शंका का समय है
हर किसी पर शक करो |
यह चीज़ों के बदलने
और बदलते-बदलते
नष्ट हो जाने का समय है |
इसीलिये यह समय
सब कुछ नष्ट किये जाने को
देखते रह जाने भर का नहीं है
यह बचे हुए को
बचाने का समय भी है |
[ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी कविताओं से चकित और आकर्षित करने वाले रफ़ीक़ ख़ान बिलासपुर (छत्तीसगढ़ ) में रहते हैं | कविताओं के साथ दिए गए चित्र समकालीन कला में तेजी से अपनी पहचान बना रहीं चित्रकार नवप्रीत ग्रेवाल ढिल्लों की पेंटिंग्स के हैं | चित्रकला में ग्रेजुएट व पोस्ट ग्रेजुएट नवप्रीत ने हिस्ट्री ऑफ ऑर्ट में भी पोस्ट ग्रेजुएशन किया है | कई समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित कर चुकीं नवप्रीत ने अपने चित्रों की दो एकल प्रदर्शनियाँ भी की हैं | जल्दी ही उनके चित्रों की एकल प्रदर्शनियाँ लुधियाना व दिल्ली में होनी हैं | ]
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Sunday, May 9, 2010
निलय उपाध्याय की कविताएँ
|| पिछड़े ||
जिनके केश काले हैं
और कमीज सफ़ेद
जेठ की धूप
भादों की बरखा और पूस की ठंड से
जिनका कोई वास्ता नहीं
जो मौसम को जूते की तरह पहनते हैं
हवा
जिन्हें पालने पर झुलाती है
जिन्हें सींचते हैं मेघ
हर सुबह
धूप के पन्नों पर लिखा अख़बार
जिन्हें जगाता है और जो खुद
ताजमहल हैं
वे भी पिछड़े हैं
उनका प्यार.....उनकी घृणा.....उनकी पसंद
सबसे अच्छे लोगों की तरह है
गंदी बस्ती से गुजरते उनके मुँह में
थूक होता है
नाक पर रूमाल
बच्चों की फटी पतंग पर नहीं
शहर की नाक पर जिनके घर हैं
वे भी पिछड़े हैं
वे बहस चला रहे हैं
कि उनके सरोकार पिछड़े हैं
उनकी जेब में नारे हैं कंधों पर व्याकरण
वे मौसम की बात करते हैं
और छाते में रहते हैं
उन्हें दुःख है कि वे पिछड़े हैं
वे खुश हैं कि
पिछड़े हैं |
|| देख कबीरा रोया ||
किसके आगे रोए कबीरा
किससे कहे दुःख
दिन-रात भर हाड़ खटाए
रात-रात भर नींद न आए
और हाल
वह क्या बताए
किसी ने खरीद लिया जन्नत का सुख
किसी ने बेच दी पुरखों की नदी
कोई खोल ले गया दरवाजे पर बंधी गाय
कोई उठा ले गया स्कूल से लौटता बच्चा
किसी ने अस्मत लूटी
किसी ने जला दी दुकान
जब गीतों में नहीं ढल पाया दुःख
तो कबीरा रोया -
देख कबीरा रोया साधो, देख कबीरा रोया |
|| बौर ||
खूब बौर आए हैं इस बार
टूसा-टूसा निकला है मुकुट बाँध
फागुन की बतास में रंगों के पकने का उत्सव है
टिकोरों के झाँकने
और आकार लेने का मौसम
पृथ्वी के रंगीन कलश पर दीया जला है मधुमास का
जाने कितनी बार बौर आए
आए टिकोरे
आमों के टपकने और चूस खाने के दिन
नहीं आए
फिर भी क्यों अच्छी लगती है कोयल की कूक
फिर क्यों पुलकित है मन
धरती के
जाने किस भाग में छुपी होती हैं उम्मीदें
जीवन का जाने कौन हिस्सा फेंकता है टूसा
कि धरी रह जाती हैं
धरी रह जाती हैं शोकाकुल स्मृतियाँ
और आगे -
बहुत आगे निकल जाती है जय-ध्वनी |
|| एक सर्द रात की कथा ||
अस्पताल के कोने में
हरसिंगार तले बैठे उस आदमी ने
ठंड को कसाई नहीं कहा, नहीं
हवा को हिंसक पशु
चुपचाप उठा
और कहीं से उठा साइकिल का पुराना टायर
जलाया अलाव
मरीजों के
घाव से उतार फेंकी गई पट्टियाँ
कचरे में छुपे कागज, पुआल
और मिठाई के फेंक दिए गए डब्बों से
उसने पूरी कोशिश की आग को बचाए रखने की
आखिरकार
जब खत्म हो गए उसके सारे उपाय
तो उसने अपनी चीकट चादर उतारी
और इतमीनान से
अलाव पर रख दिया
अपनी नवीन खोज की खुशी से
भीग गया भीतर तक
ठंड तेज थी
सचमुच की तेज, मौसम विभाग तापमान
और अखबार मृतकों के आँकड़ों में मशगूल थे
खैरात में बाँटने के लिए लकड़ी पर
जब चल रही थी बहस
उसने अपना फटा कोट उतारा
और अलाव पर रख दिया
उसने कुर्ता और गंजी उतारी
बिना बटन की पैंट उतारते वक्त पल भर सहमा
फिर उतार दिया
इस सर्द रात में
उसकी जरा-सी आँच में गरम हो रहा था शहर
अगली सुबह -
जलाव के पास वह
कुछ इस तरह पड़ा था जैसे
फूँक मारने के प्रयास में गिरा हो
आग पैदा करने की यह शायद आखिरी कोशिश थी |
[ बिहार के बक्सर जिले के एक गाँव में 1963 में जन्मे निलय उपाध्याय कविता के पाठकों के बीच खासे परिचित हैं | कवि के रूप में निलय में स्थान-बोध के साथ प्रबल काल-बोध भी है, जिससे वे अपने परिवेश का साक्षात्कार काफी बदले हुए रूप में करते हैं | कविताओं के साथ दिए गए चित्र अविजित मुखर्जी की पेंटिंग्स के हैं | ]
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Tuesday, May 4, 2010
हिजम इरावत सिंह की कविता
|| हैं वे : एक ||
शांत पर्वत को स्पर्श करने वाले
लाल मिट्टी वाले रास्ते के किनारे कुछ लोग
पत्थर तोड़ रहे हैं 'थड़' 'थड़' - हथौड़े से
ज्येष्ठ की तपती धूप में |
समीप से ही भरी हुई ट्रक-गाड़ियाँ
दौड़ते हुए चली गईं धमकाते हुए एक के बाद एक |
थोड़ी दूर पर पहरा दे रहा है एक इंजन
देख कर चले गये हैं कुछ लोग
देखा उन के कुत्तों ने भी उड़ती नज़र से |
हाँफते हुए कुछ कौए
उड़ गये और तेज कर के धूप को |
सुबह के सूरज की प्रथम किरण से
सूर्यास्त की अंतिम किरण तक
बंद नहीं होती उन के हथौड़े की आवाज़
पड़ जाने पर मद्विम आकाश की लालिमा
पोंछ देंगे ललाट से पसीना अपने हाथों से |
|| हैं वे : दो ||
बाएँ हाथ में पैना, दाहिने में हल
अर-टिटि करके हाँके जा रहे हैं उनके बैल |
फाली के बूज को मारते हैं ठोकर दाहिने पैर से
देख रही हैं आँखें बार-बार हल से बनी खूड़
तड़के जागने वाले कौए उड़ते हैं इधर-उधर सिर पर |
लौट जाता है अंधकार पीछे मुड़ कर |
पीछा करती है हवा |
ताकता है सूरज जैसे निगलने वाला हो |
सिर पर से ताकने पर सूरज के
बैल घास तोड़ते हैं क्रोधित हो कर |
नहाएँगे धूप में फिर
फिर डूब जाएँगे बारिश में |
रहेंगे जोकों के संग
रहेंगे मच्छरों के साथ |
वापस चले जाने पर सूरज के पीछे मुड़ कर
पैर फैलाएँगे बरामदे में |
खाली पेट रहने के ही हिस्सेदार
फटे वस्त्र के ही हिस्सेदार
हैं वे |
[ हिजम इरावत सिंह (1896 - 1951) आधुनिक मणिपुरी साहित्य के महत्त्वपूर्ण रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं | उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं और उपलब्ध हैं | यहाँ प्रस्तुत कविताओं का अनुवाद मणिपुरी के एक युवा रचनाकार इबोहल सिंह काद्ग्जम ने किया है | इबोहल सिंह काद्ग्जम की विभिन्न विधाओं की कई किताबें प्रकाशित हैं | कविताओं के साथ दिए गए चित्र मनोज अमेता की पेंटिंग्स के हैं | ]
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